भारत में वैसे तो कई कुप्रथाओं का जन्म हुआ। लेकिन जो प्रथा अभी तक अपनी जड़ें जमाये हुए है,वह है जाति प्रथा। समाज में ऊंच-नीच का भेदभाव है तो वह सिर्फ जाति प्रथा के कारण। यदि भारत में समानता लानी है तो जाति प्रथा को समाप्त करना अति आवश्यक है। यह हमारी सोच को सीमित कर देती है। जिससे हम ऊपर नहीं उठ पाते। इसी के कारण दूसरी जाति में विवाह करने वाले युवक एवं युवती अपने ही घर वालों द्वारा मार दिए जाते हैं। या कुछ विशेष जाति वाले लोग आरक्षण की सुविधा का लाभ उठाकर ऊंचे पदों पर बैठ जाते हैं। इससे अन्य जाति वर्ग के लोग अपने को उपेक्षित समझने लगते हैं और देश का गरीब वर्ग इससे अछूता ही रह जाता है। अर्थात इनकी घोर अपेक्षा होती है। यंहा बात आरक्षण की नहीं,बल्कि जाति की है।यदि आरक्षण दिया भी जाता है तो उसका आधार जातीय नहीं होना चाहिए।यह जाति प्रथा को ख़त्म नहीं होने देगा। आरक्षण का आधार जातीय न होकर ज़रूरत होना चाहिए। यदि गरीबों को आरक्षण की सुविधा प्रदान की जाती है तो इसमें किसी भी जाति की उपेक्षा नहीं होगी .
मान लीजिये यदि एक आरक्षित वर्ग का व्यक्ति आरक्षण का लाभ उठाकर भारतीय सिविल सेवा में उच्च पद पर आसीन हो जाता है तो वह और उसका परिवार समाज की मुख्यधारा से जुड़ जाता है। तो अब उसके वंशज को किस आधार पर आरक्षण की सुविधा का लाभ मिलना चाहिए। जातीय आधार पर..? क्यों? अब तो वह सोसाइटी की मेनस्ट्रीम से जुड़ चुका है। संविधान निर्माता डॉ. बी.आर.अम्बेडकर ने भी संविधान में आरक्षण की व्यवस्था इसलिए रखी थी कि पिछड़ी जातियों को समाज की अन्य जातियों के स्तर पर लाया जा सके। जाति आधारित आरक्षण व्यवस्था जाति प्रथा को हमेशा जिंदा रखेगा। जाति प्रथा को समाप्त करने के लिए अंतर्जातीय विवाह करने वालों को नकद उपहार या सरकारी नौकरियों में प्राथमिकता दी जा सकती है। जातिवाद इतना हावी हो चुका है कि आजकल 'कास्ट योर वोट' की जगह 'वोट योर कास्ट' का नारा दिया जाने लगा है।