हमें हमेशा से अनुशासन का पाठ सिखाया जाता रहा है। ऋषि-मुनियों ने भी अनुशासन को अपने जीवन में उतारकर ब्रह्म की प्राप्ति की है। जब हम छोटे थे तो स्कूल में चुपचाप बैठने को ही अनुशासन मानते थे लेकिन धीरे-२ हमे पता लगा कि अनुशासन का मतलब मौन होकर बैठना ही नहीं है बल्कि इसका अर्थ अधिक गहरा है। यदि कोई व्यक्ति ईमानदारी से अपना काम करता है तो उसे भी अनुशासन कहा जा सकता है। यदि हम सभ्य तरीके से अपने कार्यों का निर्वहन करते हैं तो इसे भी अनुशासन कहना गलत न होगा। अगर हम दूसरों के साथ अच्छा व्यव्हार करते हैं तो इसे भी अनुशासन की श्रेणी में रखना अनुचित न होगा।
आज की व्यस्ततम ज़िंदगी में हम लोग अनुशासन का महत्व भूल चुके हैं। हम ज़रा-२ सी बात पर अपना आपा खो बैठते हैं। संयम का अभाव इसका प्रमुख कारण है। हम सभ्य लोगों के साथ बुरा व्यव्हार करते हैं और अपने से बड़े लोगों से ऊँची आवाज़ में बात करने में हमे कोई हिचक नहीं होती। इस स्थिति में अनुशासन हमारे जीवन में एक महती भूमिका निभाता है। अनुशासन मे रहकर काम करने वाला इंसान सभी जगह प्रशंसा पाता है। हमारे पूर्वजों ने भी अनुशासन को अपना जीवन मंत्र बनाकर बड़ी से बड़ी मुश्किलों को पार किया है। लेकिन बड़ी बात यह है कि अनुशासन को अपने आचरण में उतारे कैसे? अनुशासन बलपूर्वक नहीं सिखाया जा सकता। जैसा कि महात्मा गांधी ने कहा है कि अनुशासन को दबाव से नहीं सीखा जा सकता। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जो निरंतर चलती रहती है। यह स्वयं के द्वारा ही सीखा जा सकता है। हमें जीवन के हर मोड़ पर अनुशासित रहना आना चाहिए। एक सभ्य समाज के निर्माण के लिए पहली शर्त है अनुशासन। अनुशासन रहित समाज असभ्य व हमेशा अव्यवस्थित रहता है। अनुशासन के लिए हमे धैर्यपूर्वक कार्य करने की सोच विकसित करनी होगी।