रविवार, 26 जनवरी 2014

A lesson of Disciplne



हमें हमेशा से अनुशासन का पाठ सिखाया जाता रहा है। ऋषि-मुनियों ने भी अनुशासन को अपने जीवन में उतारकर ब्रह्म की प्राप्ति की है। जब हम छोटे थे तो स्कूल में चुपचाप बैठने को ही अनुशासन मानते थे लेकिन धीरे-२ हमे पता लगा कि अनुशासन का मतलब मौन होकर बैठना ही नहीं है बल्कि इसका अर्थ अधिक गहरा है। यदि कोई व्यक्ति ईमानदारी से अपना काम करता है तो उसे भी अनुशासन कहा जा सकता है। यदि हम सभ्य तरीके से अपने कार्यों का निर्वहन करते हैं तो इसे भी अनुशासन कहना गलत न होगा। अगर हम दूसरों के साथ अच्छा व्यव्हार करते हैं तो इसे भी अनुशासन की श्रेणी में रखना अनुचित न होगा।
                                  आज की व्यस्ततम ज़िंदगी में हम लोग अनुशासन का महत्व भूल चुके हैं। हम ज़रा-२ सी बात पर अपना आपा खो बैठते हैं। संयम का अभाव इसका प्रमुख कारण है। हम सभ्य लोगों के साथ बुरा व्यव्हार करते हैं और अपने से बड़े लोगों से ऊँची आवाज़ में बात करने में हमे कोई हिचक नहीं होती। इस स्थिति में अनुशासन हमारे जीवन में एक महती भूमिका निभाता है। अनुशासन मे रहकर काम करने वाला इंसान सभी जगह प्रशंसा पाता है। हमारे पूर्वजों ने भी अनुशासन को अपना जीवन मंत्र बनाकर बड़ी से बड़ी मुश्किलों को पार किया है। लेकिन बड़ी बात यह है कि अनुशासन को अपने आचरण में उतारे कैसे? अनुशासन बलपूर्वक नहीं सिखाया जा सकता। जैसा कि महात्मा गांधी ने कहा है कि अनुशासन को दबाव से नहीं सीखा जा सकता। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जो निरंतर चलती रहती है। यह स्वयं के द्वारा ही सीखा जा सकता है। हमें जीवन के हर मोड़ पर अनुशासित रहना आना चाहिए। एक सभ्य समाज के निर्माण के लिए पहली शर्त है अनुशासन। अनुशासन रहित समाज असभ्य व हमेशा अव्यवस्थित रहता है। अनुशासन के लिए हमे धैर्यपूर्वक कार्य करने की सोच विकसित करनी होगी।  

बुधवार, 1 जनवरी 2014

समलैंगिकता: धारा 377 संवैधानिक



हाल ही में दिल्ली हाई कोर्ट के निर्णय को पलटते हुए सुप्रीम कोर्ट ने आईपीसी की धारा 377 को संवैधानिक करार देते हुए समलैंगिंक सम्बन्धों को पुनः अपराध घोषित कर दिया है। अधिकतर लोग सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले की आलोचना करने में लगे हुए हैं लेकिन मेरी राय में सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला उचित है। भारतीय संस्कृति में सदैव नैतिकता पर बल दिया गया है और अनैतिक कार्यों का पुरज़ोर विरोध किया गया है। समलैंगिंक सम्बन्ध पाश्चात्य संस्कृति की देन है,यह कहना सरासर गलत होगा क्योंकि इसका उल्लेख प्राचीन भारतीय इतिहास में भी रहा है। समलैंगिकता प्राकृतिक नहीं है और इस आधार पर बनाये गए रिश्तें भी ज्यादा दिन तक नहीं चल सकते। इस तरह के सम्बन्ध की उत्पत्ति काम वासनाओं की पूर्ति के लिए कुछ नया करने का ही परिणाम है। निश्चय ही समलैंगिक समुदाय एलजीबीटी के लिए कुछ किया जाना चाहिए लेकिन इसकी आड़ में भारतीय संस्कृति से खिलवाड़ नहीं किया जा सकता। समलैंगिक सम्बन्धों को वैधानिक मानना प्रत्यक्ष रूप से बाल यौन शोषण एवं यौन हिंसा को बढ़ावा देना है। इससे नैतिकता का पतन होगा। भारतीय जनता इसे कतई बर्दाश्त नहीं कर सकती। 
                   कल्पना कीजिये यदि आपको पता चलता है कि आप के घर का कोई सदस्य समलैंगिक है तो निश्चित ही अधिकांश लोग अपना आप खो बैठेंगे और इस बात का विरोध करेंगे। जो लोग इस वक़्त सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का विरोध कर रहे हैं उस स्थिति में वे अपने वंश और परवरिश को गाली देने लगेंगें। भारत और अन्य देश जिन्होंने समलैंगिकता को क़ानूनी मान्यता दे रखी है,में कई विभिन्नताएं हैं। यह जरूरी नहीं कि हम समाज की बदलती परिस्थिति के अनुसार ऐसे निर्णय लें जो आने वाली पीढ़ी को गलत सन्देश दे और उन्हें जानबूझकर अनैतिकता की ओर धकेलें। स्वतंत्रता के नाम पर स्वच्छंदता प्रदान करना बिलकुल भी उचित नहीं है। ऐसे में हम सभी को देश की सर्वोच्च अदालत के निर्णय का स्वागत करना चाहिए। 

बर्बाद

इस कदर हमने खुद को कर लिया बर्बाद  फिर निकले नही जज़्बात कोई उसके जाने के बाद..!!